दिवालिया के संबंध में गार्नर बनाम मर्रे का नियम या मामला इस आर्टिकल में स्पष्ट किया गया हैं। साझेदारी के खाते के समायोजन के संबंध में गार्नर बनाम मर्रे के मुकदमे में क्या सिद्धांत निश्चित किए गए हैं यह भी वर्णन हैं।
दिवालिया के संबंध में गार्नर बनाम मर्रे का मामला का वर्णन करें
जैसा कि भारतीय साझेदारी अधिनियम के अनुसार विभिन्न अनुबंध के अभाव में एक साझेदार के दिवालिया हो जाने पर फर्म का अंत हो जाता है।
जब साझेदारी फर्म का अंत किसी साझेदार के दिवालिया होने के कारण होता है तो उस स्थिति में जो साझेदार दिवालिया घोषित किया गया है वह फर्म के प्रति अपने सभी दायित्व का भुगतान नहीं कर सकता हैं। साझेदारी में प्रत्येक साझेदार का दायित्व असीमित होता हैं इसलिए यदि कोई साझेदार दिवालिया होता है तो उसके दिवालिया होने से फर्म की संपत्ति में जो कमी आती है उसे पूरा करने का दायित्व बाकी के साझेदारों पर होता है।
साझेदार के दिवालिया हो जाने की वजह से जब फर्म समाप्त किया जाता है तब सवाल यह उठता है कि दिवालिया साझेदार की कमी को शेष साझेदार किस अनुपात में पूरा करेंगे।
“1904 ई. के पहले दिवालिया साझेदार की पूंजी की कमी अन्य शोध-क्षय साझेदार उसी अनुपात में पूरा करते थे जिस अनुपात में लाभा-लाभ विभाजित होता था।”
लेकिन नवंबर 1903 में इंग्लैंड में जस्टिस जोयस ने गार्नर बनाम मुर्रे नामक प्रसिद्ध मुकदमे के फैसले में दिवालिया साझेदार की पूंजी की कमी के संबंध में नया सिद्धांत दिया था जो कि इस प्रकार से हैं –
- वसूली की हानि को सब साझेदारों में लाभा – लाभ के अनुपात में बांटना चाहिए। ( The loss realized should be divided among all the partners in the ratio of profit to profit. )
- वसूली की हानि को शोधकाम्य साझेदारों द्वारा नगदी में देना चाहिए। ( Loss of recovery should be paid in cash by the working partners. )
गार्नर बनाम मर्रे का मामला कुछ इस प्रकार से हैं –
एक फर्म में गार्नर, मर्रे और विलिकन्स नामक तीन साझेदार थे। उनकी पुंजी एक सामान थी परंतु साझेदारी समझौते के अनुसार उनके लाभा-लाभ अनुपात एक समान थें। 30 जून 1900 में न्यायालय के आदेश के अनुसार उनका फर्म समाप्त हो गया। फर्म की समाप्ति पर या फर्म की संपत्ति बेचने पर इतना धन प्राप्त हुआ है जिससे फर्म के लेनदार को पैसा वापस की जा सकती थी लेकिन साझेदारों की पूंजी के शेष का भुगतान करने के लिए पैसा पूरा नहीं था। फर्म की समाप्ति के समय फर्म का आर्थिक चिट्ठा कुछ इस प्रकार से था —-
![गार्नर बनाम मर्रे Balance Sheet](https://commercehindime.in/wp-content/uploads/2022/03/गार्नर-बनाम-मर्रे-Balance-Sheet.jpg)
इसने विलिकन्स दिवालिया हो गया और अपने पूंजी की कमी तथा अपने हिस्से की हानि देने में असमर्थ हैं। इस मुकदमे में दिवालिया साझेदार की पूंजी की कमी को अपूर्णता तथा वसूली की हानि की पूर्ति के संबंध में जस्टिस जोंस ने फैसला दिया। उनकी बातों को नीचे के पंक्ति में कुछ इस तरह से लिखा गया हैं —-
किसी दिवालिया साझेदार की पूंजी की कमी के वजह से जो हानि होती है वह व्यापार की अथवा वसूली की हानि से अलग होता हैं। इस विवाद ने न्यायाधीश द्वारा यह निर्णय दिया गया कि दिवालिया साझेदार विलिकन्स की पूंजी की कमी एक पूंजीगत हानि हैं। अतः इसका विभाजन शोधक्षम्य पूंजी अनुपात में होना चाहिए। इसका विभाजन लाभा-लाभ अनुपात में नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह कमी वसूली की हानि से अलग है।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, सभी दायित्वों का भुगतान करने के बाद जो नगद राशि शेष बचता है वह शोधक्षम्य साझेदारों को पूंजी के अनुपात में लौटाया जाना चाहिए। नगद पैसा पर्याप्त नहीं होने की वजह से उनकी पूंजी का पूर्ण भुगतान ना हो सकेगा। उनके पूंजी खाते की जो राशि शेष रह जाती है वह उनकी हानि होती है और यह हानि पूंजी के अनुपात में होगी।
अनुपात निकालने के लिए कौन सी पूंजी लेने चाहिए। इसके संबंध में यह निर्णय दिया गया कि समाप्ति से पहले अंतिम Balance Sheet में दी हुई पूंजी के अनुपात में दिवालिया साझेदार की पूंजी की अपूर्णता को संपत्ति शाली साझेदारों में बांटा जाना चाहिए। अनुपात निकालने के पहले यह देख लेना चाहिए कि साझेदारों की पूंजी स्थायी हैं अथवा परिवर्तनशील।
यदि पूंजी स्थायी हैं तो जो चिट्ठा में दी हुई होगी उसी के अनुपात में दिवालिया साझेदार की पूंजी की कमी को बांट दिया जायेगा। इसके उल्टे स्थिति में विघटन के पूर्व बनाए गए चिट्ठे में दी हुई पुंजी में उन संचित कोषों तथा अविभाजित लाभों का भी समायोजन कर दिया जाएगा जो कि उस चिट्ठे में दिए हुए हो।